लोकसभा चुनाव में यूं तो पूरे देश में होता है, लेकिन सबसे अधिक सियासी चर्चा और आकर्षण का केंद्र उत्तर प्रदेश ही रहता है। सर्वाधिक 80 सीटों वाले प्रदेश में जिसने बाजी मारी, प्राय: वही केंद्र में सरकार गठित करता है। इस बार भी कहानी में उत्तर प्रदेश की अहम भूमिका रही है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का चुनाव निकलते-निकलते अखिलेश यादव मानो यह जान गए थे कि मध्य उत्तर प्रदेश का लक्ष्य साधना है तो उन्हें खुद चुनाव में उतरना होगा। यूं तो उनके कन्नौज से लड़ने की चर्चा वर्ष 2022 से ही शुरू हो गई थी, लेकिन इस पर कभी न तो सहमति दी, न ही खुलकर इनकार किया।
कन्नौज में अखिलेश ने आखिरी समय में खोले पत्ते
इस लोकसभा चुनाव में उन्होंने भतीजे तेज प्रताप को कन्नौज से प्रत्याशी जरूर घोषित कर दिया, लेकिन अपने लिए भी गुंजाइश बनाए रखी। आखिरी समय में उन्होंने पत्ते खोले और नामांकन प्रक्रिया के अंतिम दिन पर्चा दाखिल कर दिया। हालांकि इसकी तैयारी उन्होंने पहले से ही कर रखी थी।
कांग्रेस से गठबंधन, सीटों का बंटवारा और फिर प्रत्याशियों की घोषणा में सपा ने जिस तरह फैसले किए, उसे अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की जल्दबाजी और दबाव में काम करना समझा गया, लेकिन धरातल पर यह रणनीति थी जो पार्टी की जीत का आधार बनी। हां, इसमें भाजपा के प्रत्याशियों को लेकर जनता के अंदर चल रहे विरोध ने आग में घी की तरह भी काम किया जिसका लाभ सपा को मिला।
गठबंधन, विरोध और जातीय समीकरण
अखिलेश की रणनीति की सफलता इसी से आंक लीजिए कि सपा ने घोषणा के बाद 13 प्रत्याशी बदले, जिनमें से सात जीत गए। रामपुर में आजम खां (Azam Khan) की मर्जी के खिलाफ मोहिबुल्लाह नदवी को प्रत्याशी बनाना हो या मुरादाबाद में एसटी हसन की जगह अंतिम समय में रुचि वीरा को मैदान में उतारने का फैसला हो, हर जगह उन्हें सफलता मिली।
कांग्रेस से गठबंधन किया और यहां भी सीटों के बंटवारे में पूरी सतर्कता बरती। पल्लवी पटेल के विरोध को भी उन्होंने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। अखिलेश ने 11 कुर्मी प्रत्याशी उतारे, जिसमें अधिकतर जीत गए। बीच चुनाव पाल समाज से श्याम लाल पाल को सपा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। बसपा प्रमुख मायावती के करीबी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बांदा से ले जाकर जौनपुर से लड़ा दिया।
अखिलेश की रणनीति से उलझा विपक्ष
कानपुर-बुंदेलखंड क्षेत्र की 10 सीटों को उदाहरण मानें तो सपा ने कई ऐसे प्रत्याशी उतारे जो नए थे और लगा कि उसके पास चेहरे नहीं हैं। बांदा में पहले उन्होंने शिवशंकर पटेल को प्रत्याशी बनाया। यहां भाजपा ने आरके पटेल पर दोबारा दांव लगाया था। बाद में शिवशंकर हट गए और नामांकन करा चुकीं उनकी पत्नी कृष्णा पटेल को सपा ने प्रत्याशी बना दिया।
सजातीय प्रत्याशी उतारने से ऐसा लगा कि सपा सिर्फ भाजपा को उलझाना चाहती है, लेकिन कृष्णा पटेल चुनाव जीत गईं। फतेहपुर सीट पर लंबे समय तक हां-ना का दौर चला और अंत में पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल को नामांकन की अनुमति मिली। जातीय समीकरण ऐसे बने कि नरेश जीत गए।
इटावा में सपा ने साधा जातीय समीकरण
इटावा में भी भाजपा ने डॉ.रामशंकर कठेरिया के रूप में प्रत्याशी दोहराया। शुरुआत में माहौल कठेरिया के पक्ष में ही दिख रहा था, लेकिन परिणाम आते-आते तस्वीर बदल गई और सपा के जितेंद्र दोहरे ने जीत दर्ज कर ली। यहां वंचित वर्ग (एससी) मतदाताओं की संख्या करीब साढ़े चार लाख है, इनमें से ढाई लाख वोटर सिर्फ दोहरे हैं
फर्रुखाबाद से डॉ.नवल किशोर शाक्य पर अखिलेश ने दांव लगाया। वह हार जरूर गए, पर 2,678 वोट से जीते भाजपा के मुकेश राजपूत की कुर्सी जरूर हिला दी। हमीरपुर में तो अजेंद्र सिंह राजपूत बिल्कुल नया नाम था, लेकिन भाजपा के दो बार के सांसद पुष्पेंद्र सिंह चंदेल उनसे जीत न सके।
जालौन में सपा ने बामसेफ व बसपा के मजबूत चेहरा रहे नारायण दास अहिरवार पर दांव लगाया और बाजी मार ली। यहां भाजपा से केंद्रीय मंत्री भानुप्रताप सिंह वर्मा मैदान में थे। बहरहाल, परिणाम के बाद अखिलेश यादव उत्साहित हैं और इन नतीजों को 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारी से जोड़कर देख रहे हैं।
समझिए कैसी रही रणनीति
अब आप कहेंगे कि यह रणनीति कैसे थी? इसे ऐसे समझिए…अखिलेश यादव के कन्नौज के लगातार दौरे और क्षेत्र के पुराने नेताओं की पार्टी में वापसी इसी रणनीति का हिस्सा थी। आसपास की सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा में भी उन्होंने जातीय समीकरणों का पूरा ध्यान रखा जिससे नतीजे उनके पक्ष में गए। उनके भाषणों में दोहराव जरूर दिख रहा था, लेकिन यह भी उनकी रणनीति का हिस्सा था।
पिता मुलायम सिंह यादव के समय से इस क्षेत्र से अपना लगाव, सपा सरकार के दौरान कराए काम और भाजपा सांसदों की जनता से दूरी के हथियार को मध्य वर्ग से जोड़कर माहौल बनाया। पहले प्रत्याशियों की घोषणा और फिर उनमें बदलाव किए गए तो लगा कि जल्दबाजी और दबाव में ऐसा किया जा रहा है, लेकिन पहले चरण का मतदान होने तक साफ हो गया कि यह जल्दबाजी में किया गया फैसला तो नहीं था। उनके कदमों को लेकर सवाल उठे जरूर, लेकिन उन्होंने इसे मुद्दा नहीं बनने दिया।